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HISTORY ABOUT FOUNDATION OF SANSTHAN / TRUST

AKHIL BHARATIYA SUNDESHA MEHTA FOUNDATION WHICH WAS LATER ON RENAMED AS JAIN SUNDESHA MEHTA (MUTHA) TRUST, WAS FOUNDED BY SHRI DILIP SURAJMALJI SHAH (SUNDESHA MEHTA) (KOSELAO / GHATKOPAR) IN THE YEAR 2005 WITH THE DREAM AND VISION TO CONTACT AND CONNECT ALL THE FAMILIES OF SUNDESHA MEHTA (MUTHA) GOTRU PARIVAR UNDER ONE ROOF AS AN ASSOCIATION / SANSTHAN / TRUST, WHO WORSHIPS OUR KULDEVI MAA SHREE SUNDHA (CHAMUNDA) MATA AT ALL INDIA LEVEL.

THE MAIN OBJECTIVES OF THE SANSTHAN / TRUST IS TO CONNECT ALL THE FAMILIES OF SUNDESHA MEHTA (MUTHA) GOTRU PARIVAR THROUGHOUT INDIA, ORGANISE ANNUAL SNEHA SAMMELANS AND VARIOUS PROGRAMS AND STRENGHTEN THE ASSOCIATION TO FULLFILL THE MAIN AIMS OR OBJECTIVES OF BUILDING OR CONSTRUCTING A STATE OF THE ART DHARMSHALA AND VIHAR DHAM AT SHREE SUNDHA MATA TIRTHSTAN AND VARIOUS PLACES ACROSS THE COUNTRY.

THE MEMBERS OF THE SANSTHAN / TRUST LIKE TO WORK COLLECTIVELY ON VARIOUS RELIGIOUS AND SOCIAL CAUSES FOR ACHIEVING COMMON GOALS.

HISTORY OF SUNDHA MATA TEMPLE:

अरावली की पहाड़ियों में 1220 मीटर की ऊँचाई के सुंधा पहाड़ पर चामुंडा माता जी का एक प्रसिद्ध मंदिर स्थित है जिसे सुंधामाता के नाम से जाना जाता है। सुंधा पर्वत की रमणीक एवं सुरम्य घाटी में सागी नदी से लगभग 40-45 फीट ऊंची एक प्राचीन सुरंग से जुड़ी गुफा में अघटेश्वरी चामुंडा का यह पुनीत धाम युगों-युगों से सुशोभित माना जाता है। यह जिला मुख्यालय जालोर से 105 Km तथा भीनमाल कस्बे से 35 Km दूरी पर दाँतलावास गाँव के निकट स्थित है। यह स्थान रानीवाड़ा तहसील में मालवाड़ा और जसवंतपुरा के बीच में है। यहाँ गुजरात, राजस्थान और अन्य राज्यों से प्रति वर्ष लाखों श्रद्धालु पर्यटक माता के दर्शन हेतु आते हैं। यहाँ का वातावरण अत्यंत ही मोहक और आकर्षक है जिसे वर्ष भर चलते रहने वाले फव्वारे और भी सुंदर बनाते हैं।

माता के मंदिर में संगमरमर स्तंभों पर की गई कारीगरी आबू के दिलवाड़ा जैन मंदिरों के स्तंभों की याद दिलाती है। यहाँ एक बड़े प्रस्तर खंड पर बनी माता चामुंडा की सुंदर प्रतिमा अत्यंत दर्शनीय है । यहाँ माता के सिर की पूजा की जाती है। यह कहा जाता है कि चामुंडा जी का धड़ कोटड़ा में तथा चरण सुंदरला पाल (जालोर) में पूजित है। सुंधामाता को अघटेश्वरी कहा जाता है जिसका अभिप्राय है- "वह घट ( धड़) रहित देवी, जिसका केवल सिर ही पूजा जाता है।

पौराणिक मान्यता के अनुसार अपने ससुर राजा दक्ष से यहाँ यज्ञ के विध्वंस के बाद शिव ने यज्ञ वेदी में जले हुए अपनी पत्नी सती के शव को कंधे पर उठाकर तांडव नृत्य किया तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के टुकड़े टुकड़े कर छिन्न भिन्न कर दिया। उनके शरीर के अंग भिन्न-भिन्न स्थानों पर जहां जहां गिरे, वहाँ शक्ति पीठ स्थापित हो गए। यह माना जाता है कि सुंधा पर्वत पर सती का सिर गिरा जिससे वे 'अघटेश्वरी' के नाम से विख्यात है।

देवी के इस मंदिर परिसर में माता के सामने एक प्राचीन शिवलिंग भी प्रतिष्ठित है, जो 'भुर्भुव: स्ववेश्वर महादेव' (भूरेश्वर महादेव) के नाम से सेव्य है। इस प्रकार सुंधा पर्वत के अंचल में यहाँ शिव और शक्ति दोनों एक साथ प्रतिष्ठित है।

यहाँ प्राप्त सुंधा शिलालेख हरिशेन शिलालेख या महरौली शिलालेख की तरह ऐतिहासिक महत्व का है। इस शिलालेख के अनुसार जालोर के चौहान नरेश चाचिगदेव ने इस देवी के मंदिर में विक्रम संवत 1319 में मंडप बनवाया था जिससे स्पष्ट होता है कि इस सुगंधगिरी अथवा सौगन्धिक पर्वत पर चाचिगदेव से पहले ही यहाँ चामुंडा जी विराजमान थी तथा चामुंडा 'अघटेश्वरी' नाम से लोक प्रसिद्ध थी। सुंधा माता के विषय में एक जनश्रुति यह भी है कि बकासुर नामक राक्षस का वध करने के लिए चामुंडा अपनी सात शक्तियों (सप्त मातृकाओं) समेत यहाँ पर अवतरित हुई जिनकी मूर्तियाँ चामुंडा (सुंधा माता) के पार्श्व मे प्रतिष्ठित है। माता के इस स्थान का विशेष पौराणिक महत्व है, यहाँ आना अत्यंत पुण्य फलदायी माना जाता है। कई समुदायों / जातियों द्वारा इस परिसर में भोजन प्रसाद बनाने के लिए हॉल का निर्माण कराया गया है। नवरात्रि के दौरान यहाँ भारी तादाद में श्रद्धालु माता की अर्चना के लिए आते हैं। पर्वत चोटी पर स्थित मंदिर पर जाने में आसानी के लिए वर्तमान में 800 मीटर लंबे मार्ग वाला रोप-वे भी यहाँ संचालित है जिससे लगभग छः मिनट में पर्वत पर पहुँचा जा सकता है।